गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
अपनी पाज़ेब के नश्शे में थिरकता ही रहा
टूट के बिखरा हुआ घुंघरु सिसकता ही रहा
हुस्न का पर्दा सरकता रहा रफ़्ता-रफ़्ता
और ईमान शराफ़त से झिझकता ही रहा
उसने टोका कभी मुझको कभी रोका मुझको
मेरी फ़ितरत थी बहकना मैं बहकता ही रहा
घर के आँगन में उतर आये सितारे सारे
जुगनुओं से मिरा घर शब को चमकता ही रहा
चार जानिब शब-ए-तन्हाई (तन्हाई की रात) थी ख़ामोशी थी
उसका कंगन मिरे कानों में खनकता ही रहा
ले गए लोग सभी फूल उठाकर मंदिर
शौक़ भगवान का भंवरे को खटकता ही रहा
आज ‘तालिब’ जो नई सुब्ह का निकला सूरज
घुप (घना) अंधेरे में भी कल शब वो चमकता ही रहा
– मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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