ओशो को हम क्या कहें धर्मरुगु, संत, आचार्य, अवतारी, भगवान, मसीहा, प्रवचनकार, धर्मविरोधी या फिर सेक्स गुरु। जो ओशो को नहीं जानते हैं या जो ओशो को थोड़ा बहुत ही जानते हैं, उनके लिए ओशो उपरोक्त में से कुछ भी हो सकते हैं। लेकिन जो पूरी तरह से जानते हैं, वे जानते हैं कि ओशो सिर्फ एक ‘न्यू मैन’ हैं। अर्थात् एक ऐसा आदमी जिसके लिए स्वर्ग, नरक, आत्मा, परमात्मा, समाज, राष्ट्र और वह अव्याकृत प्रश्न तीसरे दर्जे के हैं, जिसके पीछे दुनिया में पागलपन की हद हो चली है। ओशो अपना धर्म खुद हैं, खुद एक धरती हैं।
नीत्स ने जिस ‘न्यू मैन’ की कल्पना की थी वह नहीं और महर्षि अरविंद ने जिस अतिमानव की कल्पना की थी वह भी नहीं। ओशो बुद्धि और भाव के परे उस जगत की बात करते हैं जहाँ मानव ईश्वर को छूने की ताकत रखता है। निश्चित ही ओशो ईश्वर होने की बात नहीं करते, लेकिन कहते हैं कि मानव में वह ताकत है कि वह एक ऐसा मानव बन जाये जो इस धरती की सारी बचकानी बातों से निजात पा स्वयं को स्वयं में स्थिर कर वह जो होना चाहता है, हो जाये। ईश्वर ने मानव को वह ताकत दी है कि वह उसके समान हो जाये।
ओशो कहते हैं कि दुनिया अनुयायियों की वजह से बेहाल है इसलिए तुम मेरी बातों से प्रभावित होकर मेरा अनुयायी मत बनना अन्यथा एक नये तरीके की बेवकूफी शुरू हो जायेगी। मैं जो कह रहा हूँ उसका अनुसरण करने मत लग जाना। खुद जानना कि सत्य क्या है और जब जान लो कि सत्य यह है, तो इतना कर सको तो करना कि मेरे गवाह बन जाना। इसके लिए भी कोई आग्रह नहीं है। यदि आज भी सूली देना प्रचलन में होता तो निश्चित ही ओशो को सूली पर लटका दिया जाता, लेकिन अमेरिका ऐसा नहीं कर सकता था इसीलिए उसने ओशो को थेलिसियम का एक इंजेक्शन लगाया, जिसकी वजह से 19 जनवरी, 1990 में ओशो ने देह छोड़ दिया।
निश्चित ही ओशो बुद्ध जैसी ऊँचाईयाँ छूने वाले ईसा मसीह के पश्चात सर्वाधिक विवादास्पद व्यक्ति रहे हैं। 70 के दशक में ओशो और ओशो के संन्यासियों को दुनियाभर में प्रताड़ित किया गया। यह बात सर्वविदित है लेकिन इससे भी ज्यादा दुखदायी बात यह है कि ओशो प्रेमियों को आज भी इस संदेह में देखा जाता है कि मानों वह कोई अनैतिक या समाज विरोधी हैं, खासकर वामपंथी तो उन्हें देखकर बुरी तरह चिढ़ जाते हैं। ओशो के निर्वाण दिवस पर इस बात की आशा करना कि ओशो को अब धीरे-धीरे लोग समझने लगे हैं, यह बात उतनी ही धूमिल और अस्पष्ट है, जितनी की मार्क्स को आज लोग समझने में लगे हैं। आज किसी से यह कहना कि मैं ओशो प्रेमी हूँ उतना ही खतरनाक है जितना की मार्क्स के शुरुआती दौर में खुद को मार्क्सवादी कहना।
जीवन पर्यन्त ओशो हर तरह के वाद का इसलिए विरोध करते रहे कि आज जिस वाद के पीछे दुनिया पागल है दरअसल वह शुद्ध रहा कहाँ। इसीलिए जब ओशो ने पहली बार धर्मग्रन्थों पर सदियों से जमी धूल को झाड़ने का काम किया तो तलवारें तन गयी। यह तलवारें आज भी तनी हुई है जबकि दबी जबान से वही तलवारबाज कहते हैं कि कुछ तो बात है ओशो में। लेकिन हम खुलेआम इस बात को कह नहीं सकते। चोरी से पढ़ते हैं ओशो को।