कुदरत का कहर
कुदरत का कहर जारी है
अब तबाही की बारी है
सरकार लाचार है
पूरा तंत्र बीमार है।
सवाल है कि
प्रकृति के आगे किसकी चली है
खारे पानी में कभी दाल गली है?
पहाड़ टूट रहे है
भय से जनता के
पसीने छूट रहे हैं।
वह समझ नहीं पा रही है
क्या करे?
किससे करे फरियाद
अब प्रकृति से छेड़छाड़ की
आने लगी है याद।
● डॉ. एस. आनंद, वरिष्ठ साहित्यकार, कथाकार, पत्रकार, व्यंग्यकार
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