गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
किस तर्ह उसने रक्खा है मुझको ध्यान में
शमशीर (तलवार) पे रक्खा कभी रक्खा कमान में
कब तक जलाये रक्खूँ लहू से चिराग़ मैं
थो़ड़ी सी जान बाक़ी है अब मेरी जान में
चलती हैं आगे-आगे ये दुश्वारियाँ मिरी
उलझा गई है ज़िन्दगी किस इम्तिहान में
दीवार-ओ-दर न बाम-ओ-दरीचा (छत एवं छोटा द्वार) यहाँ पे हैं
आओ हवाओ साँस भरो अब मकान में
गुलशन से गुल न तोड़ तू ऐ शोख़! बात सुन
जा फूल काग़ज़ों के लगा फूल दान में
तुमने न पूछा कुछ भी न मैंने ही कुछ कहा
दिलचस्पी अब कहाँ है मिरी दास्तान में
‘तालिब’ वो माहताब (चन्द्रमा) ज़मी पर तो है नहीं
ढूँढा है जिसको तुमने बहुत आसमान में
– मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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