गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
जो अब तलक न हुआ है वो हो भी सकता है
ये आसमान मेरे साथ रो भी सकता है
गुनाहगारी का एहसास है ज़रा भी जिसे
वो दाग़ अश्क-ए-निदामत (पश्चाताप के आँसू) से धो भी सकता है
हज़ार रंज-ओ-अलम (दुख-दर्द) पर भी लब सिले ही रहे
अकेला हो तो वो फिर खुल के रो भी सकता है
बुलन्दियों पे जो इतरा रहा है आज बहुत
वो आसमान ज़मीं बोस (धरती पर झुकना) हो भी सकता है
तू अपने दिल को कभी पासबान-ए-अक़्ल (अक़्ल का पहरेदार) न कर
ये पहरेदार किसी वक़्त सो भी सकता है
वो ख़ुशकलाम बहुत है मगर ध्यान रहे
दिलों के बीच में वो काँटा बो भी सकता है
तुम उसके हाथ में पतवार देना मत ‘तालिब’
तुम्हारी नाव को माँझी डुबो भी सकता है।
– मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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