सीताराम शर्मा
‘सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यं अप्रियं’
हमारे शास्त्रों में कहा गया है ‘सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यं अप्रियं’ अर्थात सत्य बोलो, प्रिय बोलो लेकिन अप्रिय सत्य मत बोलो। देश एवं समाज की वर्तमान स्थिति को देखते हुए आज इसमें बदलाव की जरूरत है। हमें कहना चाहिये – ‘ब्रूयात सत्यं अप्रियं’ मतलब अप्रिय सत्य भी बोलो।
यह एक चिंता का विषय है कि केवल हमारे जीवन एवं आचरण में ही ईमानदारी की कमी नहीं झलकती है बल्कि हम अपने विचारों एवं अभिव्यक्तियों में भी ईमानदारी नहीं बरतते। हम स्वार्थवश सत्य बोलने से हिचकिचाते हैं। समाज में आज पंच-परमश्वरों के सर्वथा अभाव का मुख्य कारण है – ‘अप्रिय सत्य बोलने से बढ़ता परहेज।’ सीमित एवं निहित स्वार्थसिद्धि के आधार पर एक मनोवृति विकसित हो रही है जो स्व-हित के लिए असत्य बोलने की अनुमति तो देती है लेकिन परमार्थ के लिए अप्रिय सत्य बोलने पर आपत्ति करती है। समाज में परिवर्तन उन्होंने ही किया है जो कभी अप्रिय सत्य बोलने से भयभीत नहीं हुए। पर्दा-प्रथा के दौर में घूंघट हटाने के पक्ष में बोलना, घर-घर जाकर महिलाओं के घूंघट उठाना, एक बड़े साहस का कार्य था। लेकिन उनमें यह अप्रिय सत्य बोलने की हिम्मत थी कि समाज की महिलाओं को पर्दे से निकालना होगा, उन्हें शिक्षित करना होगा, बालिकाओं को बालकों की तरह विद्यालयों में भेजना होगा। रूढ़िवादी परंपराओं के विरुद्ध आवाज एक अप्रिय सत्य था, जो समाज सुधारकों ने उठाई एवं जिसका लाभ आज पूर्ण समाज, विशेषकर नारी समाज को मिल रहा है।
कुछ वर्ष पूर्व तक समाज में ऐसे प्रतिष्ठित, ईमानदार एवं स्पष्टवादी पंच थे जो कि किसी की गलत बात को उनके मुँह पर बोलने में नहीं हिचकिचाते थे। उनके लिए एक ही सत्या था – प्रिय सत्य एवं अप्रिय सत्य नहीं। उन व्यक्तियों के सम्मान एवं प्रकिष्ठा में कभी कोई कमी नहीं आई, बल्कि समाज की नजरों में वे सदैव सम्मानित पंच परमेश्वर रहे।
आज की सोच है– मैं क्यों बुरा बनूँ ? पंचायती लीपापोती हो गयी है। किसी पंच पर विश्वास नहीं रहा। न तो कोई मार्गदर्शक है, न ही प्रेरक। समाज के लिए यह एक दयनीय स्थिति है। केवल धन बोलता है।
आश्चर्य एवं चिंता होती है कि समाज का प्रतिष्ठित एवं विचारक वर्ग, विवाद से दूर रहने के नाम पर कैसे समाज में गिरते सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों को देखकर भी शांत रह सकता है, विचलित एवं उत्तेजित नहीं होता। गाँधी के तीन बंदरों की तरह गूँगा, बहरा एवं अन्धा बना बैठा रहता है। समय निकल रहा है, बोलने की -अप्रिय सत्य बोलने की जरूरत है। जैसा फैज साहब ने कहा है कि ‘बोल की लब आजाद हैं तेरे, बोल की जुबां अब तक तेरी है।’
हो सकता है कि बोलने से विवाद पैदा हो लेकिन वह चुप्पी से बेहतर होगा। हमारा समाज नंद वंश के आखिरी शासक घनानंद की तरह व्यवहार कर रहा है, जिसने खतरनाक स्थितियों को जन्म दिया है। सामाजिक खामियों-कमियों पर खुलकर बात करने की आवश्यकता है, चर्चा चाहे विवादास्पद हो, करने की जरूरत है। आलोचना से भयभीत होकर समाज को बात करने की आवश्यकता है। आपको बड़ा ज्ञानी, बेबाक, दूरदर्शी, बातूनी, प्रचार का भूखा, संयमहीन, मूर्ख, पागल आदि कुछ भी कहा जा सकता है, लेकिन इतिहास साक्षी है कि हर समाज सुधारक या क्रांतिकारी को इन सबसे गुजरना पड़ता है।
अत: ‘ब्रूयात सत्यं अप्रियं’ अर्थात ‘अप्रिय सत्य भी बोलो’।
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