क्या से क्या हो गया!
माना कि सूरज रोज ढलता है
और फिर से चमकता है
मगर ऐसे भला
किसी का दिन भी बदलता है?
कभी सीएम के बगल में
बैठकर अकड़ता था
बार-बार गरजता था
आज सबसे पिछली कतार में
झेंपते हुए खड़ा है
फिर भी अपनी बात पर अड़ा है।
अपने को सरहद पर
तैनात सिपाही कह रहा है
महज कुर्सी के लिए
इतना सब कुछ सह रहा है!
मन ही मन सोच रहा है
समय होता है बलवान
कभी गधा भी
घोड़े के सामने बन जाता है पहलवान!
मेरा भी टाइम आयेगा
आज नहीं तो कल
तब तक तुम हमें
जितना चाहे उतना छल।
● डॉ. एस. आनंद, वरिष्ठ साहित्यकार, कथाकार, पत्रकार, व्यंग्यकार
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