गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
जिस सम्त (तरफ़) देखता हूँ उजाले हैं आप के
ऐ दोस्त! क्या करिश्मे निराले हैं आप के
ख़ुश्बू से बाम-ओ-दर (छत और दरवाज़ा) भी मुअत्तर (सुगंधित) हुए तमाम
रुक़्आत (पत्र) हमने जब भी निकाले हैं आप के
आहट मिरे क़दम की मिली जब भी आपको
क्यों लग गये मकान पे ताले हैं आप के
मसरूर (ख़ुश) होगा बस वही जिसको पिला दें आप
बादा (शराब) भी आप ही का है प्याले हैं आप के
इंसाँ के दिल में आप जो रहते तो किस लिये
हर ओर मस्जिदें हैं शिवाले हैं आप के
आए हैं लोग आपके पुरसे के वास्ते
इस घर को जो कि फूंकने वाले हैं आप के
पतवार भी, सफ़ीना (नाव) भी और ना-ख़ुदा भी आप
‘तालिब’ के जिस्म-ओ-जान हवाले हैं आप के
■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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