गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
बन के क़तरा रहा सदा मुझ में
इक समुन्दर जो था छुपा मुझ में
थरथराने लगा हूँ झील सा मैं
आ के पत्थर अभी गिरा मुझ में
ख़ाक-ए-अरमाँ न यूँ उड़ा मेरी
कोई सहरा न तू जगा मुझ में
अंजुम (तारा)-ओ-माह(चाँद)-ओ-कहकशाँ (आकाशगंगा) उभरे
एक सूरज अगर बुझा मुझ में
मुस्कुराने तलक नहीं देता
है जो पोशीदा (छुपा हुआ) तजरबा मुझ में
बुझ चका है चिराग़-ए-जाँ फिर भी
ढूँढती अब है क्या हवा मुझ में
आते जाते वो ले गया ‘तालिब’
जो बची थी मिरी अना (अहं) मुझ में
■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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