गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
अजीब ढंग से कल रात यार गुज़री है
गिरेबाँ (दामन) करके मिरा तार तार गुज़री है
मिरी हयात (जीवन) बहुत पुर-वक़ार (प्रतिष्ठा पूर्ण) गुज़री है
शिकस्ता (टूटा हुआ) मैं हूँ मगर उस पे हार गुज़री है
न उसकी याद, न उसकी तड़प, न बेताबी
ये कैसे मान लूँ अब के बहार गुज़री है
जिसे भी देखिए ज़ख़्मों से चूर दिखता है
यहाँ से क्या कोई बारात-ए-ख़ार (कांटों का हुजूम) गुज़री है
ये जिन्दगी है या तूफ़ान-ए-बे-लगाम कोई
जिधर से गुज़री है दीवाना वार गुज़री है
मिरी निगाह की बीनाई दीदनी (देखने योग्य) है कि वो
हद-ए-निगाह से आगे भी यार गुज़री है
खुली किताब है ‘तालिब’ की जिस जगह से पढ़ो
कि ज़ीस्त (जीवन) मेरी भी आईना दार गुज़री है
■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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