गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
जो सहरा है उसे कैसे समुन्दर लिख दिया जाए
ग़ज़ल में किस तरह रहज़न (लुटेरा) को रहबर लिख दिया जाए
क़लम के दोश (कांधा) पर हो इम्तिहाँ का बोझ जिस हद तक
मगर हक़ तो ये है पत्थर को पत्थर लिख दिया जाए
किसी इनआम की ख़ातिर न होगा हमसे ये हरग़िज़
कि इक शाहीन (बाज़) को जंगली कूबतर लिख दिया जाए
सितम की दास्ताँ किस रोशनाई से रक़म (लिखना) होगी
लहू की धार से दफ़्तर का दफ़्तर लिख दिया जाए
किसानों को मयस्सर जब नहीं दो वक़्त की रोटी
तो ऐसे खेत को बे-सूद, बंजर लिख दिया जाए
हमारी तिश्नगी से भी कोई मसरूर होता है
हमारी प्यास को लबरेज़ साग़र लिख दिया जाए
क़लम को मैंने भी तलवार आख़िर कर लिया ‘तालिब’
मिरी नोक-ए-क़लम को नोक-ए-ख़ंजर लिख दिया जाए
■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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