गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
कहीं आसाँ सवालों का भी हल मुश्किल न बन जाए
जिसे मुन्सिफ़ समझते हो वही क़ातिल न बन जाए
तलाश-ओ-जुस्तजु में लुत्फ़ आता है मगर डर है
मिरी सहरानवर्दी (रेगिस्तान में भटकना) तालिब-ए-मंज़िल (मंज़िल की चाह रखने वाला) न बन जाए
किसी भी बज़्म (महफ़िल) में यह सोचकर अक्सर नहीं जाता
मिरी बेबाक गोई कुल्फ़त-ए-महफ़िल (महफ़िल का दुख) न बन जाए
तलातुम (तूफ़ान) में छुपी है आफ़ियत (आराम) क्यों भागे जाते हो
तुम्हारा दिल कहीं फिर ख़ू-गर-ए-साहिल (साहिल की आदत) न बन जाए
सितारों में यही सरगोशियाँ होने लगीं शब भर
जिसे जुगनू समझते हो मह-ए-कामिल न बन जाए
सुना है सोहबत-ए-तालेह तुरा तालेह कुनद (ख़राब संगत तुम को ख़राब करती है) ‘तालिब’
अब उसकी सोहबतों में तू भी पत्थर दिल न बन जाए
■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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