गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
लो उसने गेसू खोल दिये हैं ख़ुशी से आज
ऐ आफ़ताब तू भी गया रौशनी से आज
दरिया को खींच लाई थी सड़कों के बीचों बीच
साहिल पे सहमा हर कोई था चाँदनी से आज
मुड़कर न देखेगा कोई मौसम बदलने पर
तू खेल जितना खेल सके ज़िन्दगी से आज
दो मीठे बोल उसके नए ज़ख़्म दे गये
घबरा रहा हूँ ख़्वाब में भी चाशनी से आज
हैवाँ भी शर्मसार (शर्मिन्दा) है इंसाँ को देखकर
है आदमी भी दूर बहुत आदमी से आज
उलफ़त का जाम हो कि प्याला हो ज़ह् र का
वो शख़्स जो भी देता है ले लो ख़ुशी से आज
‘तालिब’ कहाँ मजाल थी मौजों में इस कद़र
कश्ती हुई है ग़र्क़ हमारी कमी से आज
■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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