गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
ज़िन्दगी में अब कोई हसरत (चाहत) नहीं, हरग़िज नहीं
ख़्वाहिशात-ए-नफ़्स (अस्तित्व की चाह) से रग़बत नहीं, हरग़िज नहीं
ये तो सच है पास में दौलत नहीं, हरग़िज नहीं
मेरे दिल में कम मगर उलफ़त नहीं, हरग़िज नहीं
लब पे आती है हंसी तो ग़म चमकने लगते हैं
कुछ छुपाने की हमें आदत नहीं, हरग़िज नहीं
हम ग़म-ए-दौराँ (ज़माने का ग़म) में कुछ-कुछ हो गये मसरूफ़ और
उनको भी ग़ैरों से अब फ़ुरसत नहीं, हरग़िज नहीं
हमसफ़र किसको बनाना है ज़रा ये सोच लो
साथ चलती देर तक शोहरत नहीं, हरग़िज नहीं
धूप की शिद्दत में भी रहने की आदत डाल लो
अब किसी भी छाँव में राहत नहीं, हरग़िज नहीं
इस ज़मीं को आसमाँ करने में गुज़री है हयात
पर सुनाऊँ सबको ये फ़ितरत नहीं, हरग़िज नहीं
बारिशें राहत रसाँ हैं हद में हों ‘तालिब’ अगर
हर घटा तो बाइस-ए-राहत (सुकून का कारण) नहीं, हरग़िज नहीं
■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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