कविता से क्या पेट भरेगा?
क्यों मेरे सिर पर खड़ी हुई हो
मेरे पीछे पड़ी हुई हो?
बात -बात पर देती तानें
कविता का क्या तुम मर्म है जाने?
यह अन्तरमन से फूट रही है
तेरी हड्डी क्यों टूट रही है?
जाओ अपना काम करो
चूल्हा-चौका साफ करो।
जिसका काम उसीको साजै
और करे तो डण्डा बाजै।
मेरी बात उसे खल गयी
चुपचाप किचन की ओर चल गयी
मैंने समझा कि बला टल गयी।
एकाएक वह फिर से आई
आते ही जोर से चिल्लाई
कविता से क्या पेट भरेगा
इससे घर संसार चलेगा?
बहुतेरे कवि मेरे आगे मरे हैं
अपनी कविताएं सिरहाने धरे हैं
अब भी कह रही हूं
कविताएं लिखना छोड़ दो
या मुझसे नाता ही तोड़ लो।
तुम्हारी कविताएं मैं सह नहीं सकती
अब मैं तेरे साथ रह नहीं सकती!
● डॉ. एस. आनंद, वरिष्ठ साहित्यकार, कथाकार, पत्रकार, व्यंग्यकार
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