व्यंग्य कविता
कविता तुम्हें मुबारक!
भाई साहब! आप यहां मत आना
यहां आकर कोरोना मत फैलाना
मैं खुद कई बीमारियों से ग्रस्त हूं
बावजूद इसके मस्त हूं।
मैं बाहर नहीं निकलता
मेरा मन अब नहीं मचलता
ऐसे में तुम आकर
मेरा बोझ मत बढ़ाना
हमसे दूरी ही बनाना
जहां हो वहीं पड़े रहो
मैं तो कहूंगा कि वहीं अड़े रहो।
यह सुनकर वह रह गया दंग
उड़ गया उसके चेहरे का रंग।
झुंझला कर बोला-
मैं वहां आकर तुम्हें कविता सुनाऊंगा
तुम्हारी बोरियत भगाऊंगा।
मैंने तुरंत जवाब दिया-
यहां मेरी खटिया खड़ी है
और तुम्हें कविता सुनाने की पड़ी है?
मैं जान गया हूं कवियों की फितरत
और मुझे हो गई है कविता से नफ़रत।
◆ डॉ. एस. आनंद, वरिष्ठ साहित्यकार, कथाकार, पत्रकार, व्यंग्यकार
यह भी पढ़ें : डॉ. एस. आनंद की कलम से व्यंग्य कविता ‘घर ही छोड़ दूं!’
Advertisement