प्रश्न : ओशो, मनुष्य के रूपांतरण के लिए क्या मनोविज्ञान पर्याप्त नहीं है? मनोविज्ञान के जन्म के बाद धर्म की क्या आवश्यकता है?
मनोविज्ञान रूपांतरण में उत्सुक नहीं है। मनोविज्ञान तो समायोजन में उत्सुक है, ‘एडजस्टमेंट’ में। मनोविज्ञान तो चाहता है कि तुम भीड़ के साथ समायोजित रहो, तुम भीड़ से छूट न जाओ, टूट न जाओ, अलग-थलग न हो जाओ, तुम भीड़ के हिस्से रहो। मनोविज्ञान का तो पूरा उपाय यही है कि तुम व्यक्ति न बन पाओ, समाज के अंग रहो। तो जैसे ही कोई व्यक्ति समाज से छिटकने लगता है, हटने लगता है, कुछ निजता प्रगट करने लगाता है, वैसे ही हम मनोवैज्ञानिक के पास भागते हैं कि इसको समायोजन दो, इसको वापिस लाओ, यह कुछ दूर जाने लगा, इसने कुछ पगडंडी बनानी शुरू कर दी, राजपथ पर लाओ।
मनोविज्ञान रूपातंरण में उत्सुक ही नहीं है। रूपातंरण का अर्थ होता है – क्रांति। और पहली क्रांति तो है समाज से मुक्त हो जाना, व्यक्ति हो जाना। पहली तो क्रांति है आत्मवान होना। पहली तो क्रांति है कि भेड़चाल छोड़ देना। साधारणत: आदमी भेड़ों की तरह है। जहाँ सारी भेड़ें जा रहीं हैं, वह भी जा रहा है। उससे पूछो, तुम क्यों जा रहे हो? हमारे बाप-दादा जाते थे, उसके भी बाप-दाता जाते थे, इसीलिए हम भी जा रहे हैं। तुमने कभी खुद से भी पूछा कि तुम क्यों उठ कर चले मंदिर की तरफ या मस्जिद की तरफ? क्योंकि बाप-दादा भी वहीं जाते थे। इस भीड़ से जब भी कोई छिटकने लगता है तो भीड़ चिंतित हो जाती है।
मनोविज्ञान तो अभी भीड़ की सेवा करता है, अभी उसमें क्रांति नहीं है। अभी तो वह चाहता है कि तुम्हें मनोचिकित्सा के द्वारा भीड़ का अंग बना दिया जाये। वह तुम्हें भीड़ के साथ राजी करवाता है और दूसरा काम यह करता है कि तुम्हारे भीतर तुम अगर अपने से ही परेशान होने लगो तो वह तुम्हारी परेशानियों से भी तुम्हें धीरे-धीरे राजी करवाता है।
‘अभी मनोविज्ञान के पास ध्यान जैसी कोई कला नहीं है। अभी मनोविज्ञान तो केवल बौद्धिक विचार है, विश्लेषण है। अभी तो बस सोच-विचार है। सोच-विचार से कोई क्रांति हो सकती है? क्रांति तो होती है निराकार के अनुभव से’
पुस्तक : झरत दसहुं दिस मोती
प्रवचन नं. 18 से संकलित
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