गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
किसे अब दास्ताँ अपनी सुनाएँ
मुक़ाबिल (सामने) आइने के बैठ जाएँ
जो आता है गुज़र जाता है फिर भी
ज़मीन-ए-दिल की ख़ाक अब क्यों उड़ाएँ
हज़ारों लोग तिश्ना लब यहाँ हैं
वुज़ू कैसे करें कैसे नहाएँ
अंधेरा ही अंधेरा हर तरफ़ है
चिराग़-ए-दिल कहाँ तक हम जलाएँ
उसी इक बात का चर्चा बहुत है
जिसे हमने तो चाहा था छुपाएँ
नज़र की शम्मा रौशन कर रहा हूँ
न जाने कब सितारे डूब जाएँ
चमन का गोशा-गोशा जल रहा है
किसे छोड़ें यहाँ किसको बचाएँ
ज़मीं का एक टुकड़ा है जहाँ पर
अदब के साथ चलती हैं हवाएँ
मुसलसल ज़ख़्म का पर्दा कहाँ तक
कहाँ तक तीर खाकर मुस्कुराएँ
बिछौना भी नहीं है आज ‘तालिब’
तड़प, ग़म, नींद, आँसू क्या बिछाएँ
■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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