ओशो की नजर से आध्यात्म की राह
चालीस सालों से लोग कृष्णमूर्ति को सुन रहे हैं और नासमझों की भांति बैठे हुए हैं। क्योंकि वे कहते हैं बेकार है। जब बेकार ही है, जब कृष्णमूर्ति कह रहे हैं तो अब ठीक है। कोई गलत तो नहीं कह रहे हैं। सारी जिंदगी से वे यही कह रहें हैं। वे गलत जरा भी नहीं कह रहे हैं और फिर भी गलत कह रहे हैं। क्योंकि तुम्हारे ऊपर कोई दृष्टि नहीं है, अपनी कहे चले जा रहे हैं।
इसीलिए मैं निरतंर इस कोशिश में रहता हूँ कि अपने को बचाऊँ, अपनी कहूँ ही नहीं तुमसे। क्योंकि मैं अपनी कहूँगा और ठीक-ठीक कहूँगा तो तुम्हारे किसी काम का नहीं होगा। लेकिन अब कितना मजा है कि अगर मैं तुम्हारी कहूँ, तुम्हारी फिक्र से कहूँ, तो तुम ही मुझसे कहने आओगे कि अरे आपने ऐसा कह दिया। इसमें यह विरोध आ गया। मैं बिल्कुल अवरोध की बात कह सकता हूँ लेकिन तब तुम्हारे किसी काम की नहीं होगी। हाँ, इतने ही काम की होगी कि तुम जहाँ हो, वहीं ठहर जाओगे। तो सिद्ध की कठिनाई है कि वह जो जानता है वह कह नहीं सकता। इसीलिए जो पुरानी व्यवस्था थी एक लिहाज से उचित थी, गहरी थी। तुम्हारी स्थिति के अनुसार बातें कही जाती थीं। तुम कहाँ तक हो वहाँ तक बात कही जाती थी। सब बातें टेंटेटिव थी, कोई बात अल्टीमेट नहीं थी। तुम जैसे-जैसे बढ़ते जाओगे वैसे-वैसे हम खिसकाते जाएंगे। तुम्हारी जितनी गति होगी उतना हम पीछे हटते जायेंगे। हम कहेंगे, अब यह बेकार हो गया, अब इसको छोड़ दो। जिस दिन तुम उस स्थिति में पहुँच जाओगे, जब हम कह सकेंगे कि परमात्मा बेकार है, आत्मा बेकार है, ध्यान बेकार है, उस दिन कह देंगे। हालांकि यह उसी वक्त कहा जा सकता है जब कि सबकुछ बेकार होने से कुछ भी बेकार नहीं होता। तब तुम हँसते हो और जानते हुए हँसते हो।
अगर मैं कहता हूँ कि ध्यान बेकार है और तुम ध्यान करने चले जाओ, तो मैं मानता हूँ कि तुम मात्र थे, तुमसे कहा तो ठीक कहा। अगर मैं कहूँ कि सन्यास बेकार है और तुम सन्यास ले लो, तो मैं जानता हूँ कि तुम पात्र थे और तुमसे ठीक कहा।
अब ये जो कठिनाइयां हैं, ये कठिनाइयाँ ख्याल में आयेंगी धीरे-धीरे तुम्हें!