गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
घर से निकला था किसी का साथ पाने के लिये
वक़्त ही कब था किसी के पास आने के लिए
रात आधी हो चुकी सूरज कहाँ से लाओगे
आशियाँ हाज़िर है मेरे अब जलाने के लिये
मेरे गिरदाब-ओ-तलातुम (भंवर और तूफ़ान) से निकलना है मुहाल
अहल-ए-साहिल (साहिल के लोग) से कहो अब लौट जाने के लिये
मस्लेहत है चेहरे पर चेहरा लगाना चाहिए
अश्क भी कहते हैं मुझको मुस्कुराने के लिये
उनके ख़ंजर को भी फिर से हौसला मिल जायेगा
हम भी हैं तैयार फिर से ज़ख़्म खाने के लिये
क़ैस के नक़्श-ए-क़दम पर चल के ‘तालिब’ देखिए
हाथ कितने बढ़ते हैं पत्थर उठाने के लिये
■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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