गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
मिरी डगर से भी इक दिन गुज़र के देख ज़रा
ऐ आसमान ज़मीं पर उतर के देख ज़रा
धड़कने लगते हैं दीवार-ओ-दर भी दिल की तरह
कि संग-ओ-ख़िश्त में कुछ साँस भर के देख ज़रा
हर एक ऐब हुनर में बदल भी सकता है
तू इज्तिनाब गुनाहों से करके देख ज़रा
तू चुप रहेगा तिरे हाथ पाँव बोलेंगे
यक़ीं न आए तो इक रोज़ मर के देख ज़रा
उठे जिधर भी नज़र रौशनी उधर जाए
करिश्मे कैसे हैं उसकी नज़र के देख ज़रा
है कौन कैसा मसीहा तुझे चलेगा पता
तू दर्द बन के किसी दिन उभर के देख ज़रा
ख़मोशियों की भी ‘तालिब’ ज़बान है कैसी
सुकूत-ए-बह्र के अंदर उतर के देख ज़रा
(कुछ शब्दों के अर्थ : ख़िश्त – ईंट और पत्थर, इज्तिनाब – परहेज़, सुकूत-ए-बह्र् – समुन्दर की ख़ामोशी)
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