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गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
नहीं छोड़ी तलाश-ओ-जुस्तजू भी ऊब के मैंने
समुन्दर से निकाले हैं ये मोती डूब के मैंने
नज़र जिसकी पड़ी उस पर हुए चौदह तबक़ रौशन
करिश्मे ये भी देखे हैं रुख़-ए-महबूब के मैंने
तुझे बदनाम होने से बचाना था मिरा मक़सद
जला डाले हैं सब टुकड़े तिरे मकतूब के मैंने
मुझे मैदाँ में गिर के उठते देखा तो वो ये बोले
नहीं देखे हैं ऐसे हौसले मग़लूब के मैंने
न काम आए उसूल अपने तो फिर ‘तालिब’ हुआ ये है
बदल डाले हैं पैमाने ज़रा उसलूब के मैंने
कुछ शब्दों के अर्थ : तबक़ : तह, हिस्सा। रुख़-ए-महबूब : प्रियतम का मुखड़ा। मकतूब : पत्र। मग़लूब : पराजित। उसलूब : तरीक़ा तर्ज
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